रविवार, 1 नवंबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता - 24-यवागू पेय

गतांक से आगे..............
दुधित्थबिल्वचान्गैरीतक्रदाडिमसाधिता
पाचनी ग्राहिणी पेया, सवाते पान्चमूलिकी (१९)
अर्थात---
  1. यदि अतिसार का रोग या संग्रहणी वात विकार सहित हो जाये तो पञ्च मूळ  अर्थात छोटी कटेरी, गद्दी, कंटेरी, शालपर्णी, पृश्नीपर्णी और गोखरू एस पञ्च मूळ  के साथ पया बनानी चाहिए.
  2. शालिपर्णी (सालवन), बला (खरेंटी) बिल्व(बेलगिरी), पृश्नीपर्णी (पिठवन), इन औषधियों से साधित यवागू (पेया), दाडिम (अनार दाना) से खट्टी करके पान करें तो वह पित्त और श्लेष्म (कफ) के अतिसार में हित कारक होती है.
  3. बकरी के दूध में आधा पानी मिलाकर इसमें ह्रिबेर (गंध वाला), उत्पल (नीलोफर) और नागर (सोंठ)  नागर-मोथा,और पृश्नीपर्णी से तैयार की गई पया रक्त के अतिसार को नाश करती है.        
जारी है ...................

4 टिप्पणियाँ:

Unknown on 1 नवंबर 2009 को 6:55 pm बजे ने कहा…

अति उत्तम कार्य कर रहे हो गुरु !
स्वास्थ्य से बड़ी और कोई देन नहीं है दुनिया में आज के समय...........
--अभिनन्दन !

Vinashaay sharma on 1 नवंबर 2009 को 7:31 pm बजे ने कहा…

सहमत हूँ,अलबेला खत्री जी से ।

रवि कुमार, रावतभाटा on 1 नवंबर 2009 को 10:18 pm बजे ने कहा…

हम सोचे थे आप उस पर आलोचना का महती कार्य साधने वाले हैं...

यह भी ठीक है...

पर ये ईलाज उस वक्त के उपलब्ध ज्ञान के हिसाब से ही होंगे, अतएव चेतावनी भी ड़ाल दे कि पाठक अपने जोखि़म पर ही इनका उपयोग करें..

Murari Pareek on 3 नवंबर 2009 को 12:21 pm बजे ने कहा…

bahut hi sundar aur bahut hi upyogi jaankaari de rahe hain!! aaj kal ke liye to ye amulya hai !!!

 

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