गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

नूतन वर्ष २०१० की आपको अशेष शुभकामनायें अपार!!

नवल धवल सूरज से आलोकित हो घर आँगन परिवार
नूतन वर्ष २०१० की आपको अशेष शुभकामनायें अपार


बाधाएं दूर हो जीवन की, नित प्रेम सुरभि का हो संचार
मन में करुणा व्यापे निस दिन बढे सुखों का  कोषागार





 
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गुरुवार, 5 नवंबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता - 27-यवागू पेय

गतांक से आगे..............
१६.यमक अर्थात घी और तेल बराबर-बराबर लेकर उसमे चावलों को भुन कर मद्य के साथ पकाई यवागू पक्काशय की पीड़ा को दूर करता है.
१७.शाको ,तिल, और उड़द इनसे बनी यवागू मल लेन में उत्तम है.
१८. जामुन ,आम की गुठली, कैथ का गुद्दा, अम्ल (खट्टी कांजी), और बिल्व (बेल गिरी) इनसे बनी यवागू दस्त रोकने वाली कही जाती है.
१९.क्षार (खार, जवासार), चित्रक (चीता), हिंगू (हिंग), अम्लवेतस (अमल वेद) इसमें बानी यवागू भेदनी अर्थात कब्जकुशा, दस्त लाने वाली होती है.
२०.अभय (हरड) पीपला मूळ, और विश्व (सोंठ)  इनमे बनी यवागू  वायु को अनुलोमन करती है. वायु को नीचे मार्ग से निकल कर उपद्रव शांत करती है.
२१.तक्र (मट्ठा, छाछ) से बनी यवागू, घी अधिक खाने से हुए उपद्रव को शांत करती है.
२२. छाछ और पिण्याक (तिलों की खल) से बनी यवागू तेल के अधिक खाने से हुए उपद्रवों को दूर करने में उत्तम है.
२३.गौ के रसों से तैयार से साधित पेया अनारदाने से खट्टी की जाकर सेवन करने से विषं ज्वर को शांत करती है.
२४. घी तेल के मिश्रण से भुन कर पीपली, आमला, के साथ पकाई गई जौ की पेया कंठ रोगों के लिए हितकारी है.
२५.ताम्रचुड़(मुर्गे) के मांस रस में सिद्ध की हुयी पेया वीर्य मार्ग की पीडाओं को दूर करती है.
२६. उड़द की डाल और घी दूध से बनाई हुयी पेया वृष्य अर्थात वीर्य वर्धक होती है.
२७.उपोदिका (पोई का साग) और दधि (दही) से तैयार की गई पेया मद अर्थात नशे को दूर करती है.
२८.अपामार्ग (चिरचिटा, औंगा) बीज, दूध,और गोधा के रस से बनी पेया भूख को दूर करती है. इसके खाने से कई दिनों तक भूख नहीं लगती.
इस अध्याय में २८ प्रकार की यवागू कही गई है, वमनादी पॉँच शोधन कर्मों के सम्बन्ध में संक्षेप से औषध कही गई है.जो औषध मूळ और फल के ज्ञान प्रसंग में कही गई है वही पुन: पञ्चकर्म प्रसंग में कही गई है. जिस वैद्य की स्मृति अच्छी है., जो युक्ति (प्रयोग) और कार्य कारण को भली भांति जानता  है जो अपने आत्मा (मन-इन्द्रियों) पर वाशी है, वह अनेक औषधों के योगों द्वारा रोगी की उत्तम चिकित्सा करने में समर्थ है.
जारी है............................
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बुधवार, 4 नवंबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता - 26-यवागू पेय

गतांक से आगे................
सिद्धा वराहनिर्युहे यवागूरवृहणि  मता
गवेधुकानाम भ्रिषटानां  कर्षणिया समाक्षिका (२५)
११. वराह (सूअर -शुकरकंद(कशेरू) के) मांस या गुर्दे से से सिद्ध पेया मांस बढाती है.
12 . भुने हुए गवेधुका (मुनि-अन्न सांवा) के साथ तैयार कि यवागू  माक्षिक (शहद)  के साथ ली हुयी  मोटापा कम करती है.
१३.अधिक तिल और घी वाली नमक के साथ तैयार की गई यवागू  स्नेहनी (शरीर में चिकनाई पैदा करके रुक्षता का नाश करने वाली)  होती है, इसमें तिल अधिक और चावल कम डाले जाते हैं.
१४. कुश (दाभ) तृण, तथा आवलों से के रस तथा सांवा  चावलों को पकाकर तैयार की गई पेया विरुक्षणि अर्थात रूखापन पैदा करती है. वह अधिक चिकनाई से पैदा हुए दोषों को दूर करती है.
१५. दस मूली से पकाई हुयी यवागू (पेया) खांसी, हिचक, दमा, और कफ को नाश करती है.
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मंगलवार, 3 नवंबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता - 25-यवागू पेय

गतांक से आगे..........
दद्यात्सातीविषं पेयाम सामे साम्लां सनागराम,
श्र्वदंष्ट्राकंटकारिभ्याम मूत्रकृच्छ सफाणिताम् (२२)
अर्थात ..............
६. आमातिसार में अनारदाना से खट्टी पेया अतिविद्या (अतीस) तथा नागर (सोंठ) मिलाकर देना चाहिए.
७.मूत्र कृच्छ  रोग में श्वदंट्रा (गोखरू) और कंटकारी छोटी कंटेरी के साथ पकाकर उसमे फाणित (राब) मिलाकर पेया देनी चाहिए.
८. विडंग (बाय विडंग), पिप्पली मूळ (पीपला मूळ), सह्न्जना , शोमांजन, मिर्च (काली गोल मिर्च) के साथ तक्र (छाछ) में तैयार कर यवागू में सुवर्चिक (सज्जिखर) डालकर सेवन करने से वह पेट के क्रीमी का नाश करती है.
९.मृद्वीका(दाख किशमिश) सारिवा (अनंत मूल) लाजा (धान की खील) पिप्पली (पीपल)  मधु (शहद), और नागर (सोंठ या नागर मोथा)  इनके साथ पकाई गई पेया, पिपासा (प्यास एवं तृष्णा) रोग का नाश करती है,
१०. सोमराजी (काली जीरी) के साथ पकाई पेया मांस बढ़ाने वाली होती है.

जारी है .................................... 
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रविवार, 1 नवंबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता - 24-यवागू पेय

गतांक से आगे..............
दुधित्थबिल्वचान्गैरीतक्रदाडिमसाधिता
पाचनी ग्राहिणी पेया, सवाते पान्चमूलिकी (१९)
अर्थात---
  1. यदि अतिसार का रोग या संग्रहणी वात विकार सहित हो जाये तो पञ्च मूळ  अर्थात छोटी कटेरी, गद्दी, कंटेरी, शालपर्णी, पृश्नीपर्णी और गोखरू एस पञ्च मूळ  के साथ पया बनानी चाहिए.
  2. शालिपर्णी (सालवन), बला (खरेंटी) बिल्व(बेलगिरी), पृश्नीपर्णी (पिठवन), इन औषधियों से साधित यवागू (पेया), दाडिम (अनार दाना) से खट्टी करके पान करें तो वह पित्त और श्लेष्म (कफ) के अतिसार में हित कारक होती है.
  3. बकरी के दूध में आधा पानी मिलाकर इसमें ह्रिबेर (गंध वाला), उत्पल (नीलोफर) और नागर (सोंठ)  नागर-मोथा,और पृश्नीपर्णी से तैयार की गई पया रक्त के अतिसार को नाश करती है.        
जारी है ...................
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शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता 23-यवागू पेय

गतांक से आगे.............
पिप्पली पिप्पलीमूळ च्वयाचित्रकेनागरै:
यवागुर्दोंपनीया स्याच्छुलघ्निम चोपसाधिता (१८)
अर्थात- दधित्य (कैथ), बिल्व (बेलगिरी), चान्गेरी( चूका), तक्र(छाछ), दाडिम (अनारदाना) इन औषधियों के योग से तैयार की हुई यवागू भोजन को पचाने वाली, और ग्राहणी अर्थात दस्तों को बंद करने वाली होती है. अधिक खट्टी ना हो इसलिए छाछ में पानी मिला देना चाहिए.
जारी है................
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शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता-22 यवागू कल्पना एवं उसके गुण

गतांक से आगे.............
अत ऊर्ध्वं प्रवक्षयामी यवागुर्विविधौषधा,
विविधानाम विकाराणाम तत्साध्यानाम निवृत्तये(१७)
यवागू कल्पना एवं उसके गुण- अब आगे नाना प्रकार की औषधियों से तैयार की जाने वाली उन औषधियों से अच्छा होने वाले अनेक  रोगों को दूर करने के लिए यवागुओं (लाप्सी पेय) का वर्णन करेंगे.
मल शोधन के पश्चात् यवागू या पेय पदार्थ का वर्णन इस लिए होता है कि पंच कर्मों के सम्यक योग न होने से जठराग्नि मंद हो जाती है. उसको तेज करने के लिए पेयों का विधान है. पेयों से जठराग्नि स्थिर हो जाती है.
अन्ने पंचगुने साध्यं विलेपीनु चतुर्गुणे,
मंडश्च्तुर्दाशगुणे यवागू: षडगुणेsम्भसी.
अन्न के ६ गुणे जल में बनाई लप्सीय पानयोग्य पदार्थ को 'यवागू' या पेय कहते हैं. जो यवागू पिप्पली, पिप्पली मूळ (पीपला मूळ) चवी (चव, चविका), चित्रक (चिता) और नागर (सोंठ) इन औषधियों  के साथ बनाकर तैयार की जाती है.यह जठराग्नि को तृप्त करती है और पेट में उठने वाले दर्द को शांत करती है.
जारी है..................
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गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता-21- अनुवासन

गतांक से आगे...........
अत एवौषधगनात्संकल्प्यमनुवासनम .
मरुपघ्नमिति प्रोक्तं संग्रह: पान्चकर्मिक (१४)
अनुवासन-जिन औषधियों का उपदेश बस्ती कर्म के लिए किया गया है, वात नाशक होने से उनका ही अनुवासन वस्ति के लिए भी प्रयोग करना चाहिए.
इस प्रकार नस्य, वमन, विरेचन, आस्थापन, अनुवासन, इन पांचों शोधन कर्मो के लिए संक्षेप में औषधियों का उपदेश कर दिया गया है.जिन रोगियों के शरीर में दोष संचित हों, उनको दूर करने के लिए स्नेहन और स्वेदन कराकर मात्र और काल का विचार करते हुए, शिरोविरेचन,वमन,विरेचन,निरुहण, और अन्वासन, इन पॉँच कर्मो का प्रयोग करें,क्योंकि युक्ति, योग, या उक्त कर्मों का प्रयोग मात्र और काल पर निर्भर है.सफलता प्रयोग पर आश्रित है. इस युक्ति (उचित प्रयोग) को जानने वाला वैद्य ही केवल द्रव्यादी के नाम और गुण जानने वालों से भी उपर प्रतिष्ठा पाता है.
पंच कर्म कराने से पहले स्नेहन एवं स्वेदन करना चाहिए.
जारी है...................
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बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता 20 - विरेचक द्रव्य

गतांक से आगे..........
त्रिवृताम् त्रिफलाम दंतीं निलिनीम सप्त्लाम वचाम
कम्पिल्कम गवाक्षीं च क्षीरणिमुदकीर्यकाम (९)

विरेचक द्रव्य -- त्रिवृता (त्रिवि, निसोत), त्रिफला, (हरड, बहेडा, आंवला), दंती (जमाल घोटा), नीलिनी (नील), सप्तला(सातला), वचा (वच), कम्पीलक( कमीला) गवाक्षी (इन्द्रायण), क्षीरणी (हरी दुधली, दुग्धिका, दूधी, चोक), उद्कीर्यका( वृक्ष करंज, कंजा, नाटा, करंज, करन्जुआ), पीलू, आरग्वध, (अमलतास) द्राक्षा (मुनक्का), द्रवन्ति (बड़ी दंती, जमाल घोटे का बड़ा भेद), निचुल (हिज्जल फल, समुद्र फल),  इन औषधियों का प्रयोग पक्काशय के विद्यमान दोष को विरेचन द्वारा बाहर निकलने  के लिए करें, इनमे से त्रिवृत, दंती, नीलिनी, सातला, वाच, इन्द्रायण, दूधी, बड़ी दंती, इनकी जड़ और त्रिफला, कमीला , करंज, पीलू, अमलतास, दाख, समुद्र फल, इनका फल प्रयोग में आता है.
त्रिवृत सबसे उत्तम विरेचन कारी द्रव्य है. पक्काशय गत दोष का तात्पर्य है, पक्काशय में जो दुष्ट पित्त, या कफांश है, जिसका विरेचन द्वारा निकलना उचित हो,
 जारी है..............
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महर्षि चरक एवं चरका संहिता-19- वस्ती देने योग्य द्रव्य

गतांक से आगे...........
पाटलीं च अग्नि मन्थम च बिल्वं श्योनाकमेव च.
काश्मर्यम शाल पर्णी च पृश्नीपर्णी निदिग्धिकाम (११)

वस्ति देने योग्य द्रव्य- पाटला (पाढ़, पाढ़ल), अग्नि मन्य(अरणी), विल्व (बेल, बेलगिरी), श्योनाक (अर्लू, टेंटू, सोना पाठा), काश्मर्थ (गाम्भारी, धमार),शाल पर्णी ( सालवन), पृश्नीपर्णी ( पृष्टपर्णी,पीठापर्णी, पिठ्वनी), निदिग्धा (छोटी कटेरी, कन्तेली, भट कटैया), बला(खरैटी),  श्र्वदंष्ट्रा (गोखरू), वृहती (बड़ी कंटेली ), एरंड, पुनर्नवा (सांठी, आटा-साटा), यव (जौ) कूल्त्थ (कुल्थी) कोल (बदर,बेर) गुडूची (गिलोय, गुलुच) मदन (मैनफल) पलाश (ढाक) कतृण (गंधतृण, रोहिषतृण), और चार स्नेह (घी, तेल, चर्बी और मज्जा) और पांचों प्रकार के लवण तथा मल मूत्र के अवरोध में आस्थापन अर्थात वस्ति कर्म के लिए परयोग करें.
जारी है.
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सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता-18- अध्याय २-वमन कारक द्रव्य

गतांक से आगे...........
मदनं मधुकं निम्बं जिमूतं कृतवेधनं.
पिपलीकूटजेक्ष्वाकूणयेला धामार्गवाणी (७)
उपस्थिते श्लेषमपित्ते व्याधावामाशयाश्रये
वमनार्थम प्रत्यंजीत भीषग्देहमदुषयम (८)
वमन कारक द्रव्य- मदन (मैन फल), मधुक (मुलैठी) निम्ब (नीम), जीमूत (कडुई, तुरई, देवदाली), कृत्वेधन (तोरई) पीप्प्ली (पिपली), कूताज (कूड़ा ,इन्द्रजौ) इक्ष्वाकु ( कडुआ तुम्बा), एला ( बड़ी इलायची), धामागर्व (कडुई तुरई) इन औषधियों  अमाशय में श्लेषपित्त की व्याधि हो, तब वैद्य इस प्रकार करे कि देह में व्याधि उत्पन्न ना हो.
जारी है................
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रविवार, 25 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता-१७- अध्याय २- शिरोविरेचन-अपामार्ग तंडूलीय

गतांक से आगे............
अध्याय  २.
इस अध्याय का नाम "अपामार्ग तंडूलीय"है. इसके विवरण हेतु भगवान आत्रेय ने उपदेश किया हिल
अपमार्गास्य बीजानि पिपप्लीर्मरिचानि च .
विडंगान्याथ शिग्रुणि सर्व्पंस्तुम्बूरुणि च ..(३)
शिरोविरेचन द्रव्य- अपामार्ग, (औंगा, चिरचिटा, पूठकंडा), के बीज, पिप्पली (पीपल, बड़ी, छोटी), मिर्च (काली मिर्च, गोल, या सफ़ेद,) विडंग(वाय विडंग), शिग्रु (सहजने के बीज), सर्षप( सरसों के बीज), तुम्बुरु (नेपाली धनिया,तुमरू) अजाजी (जीरा), अजगंधा( अजमोद) पीलू (पीलू के बीज), एला (छोटी इलायची) हरेणुका (रेणुका, मेहँदी के बीज, सुगंध द्रव्य) पृथ्वीका (बड़ी इलायची के बीज), सुरसा (तुलसी के बीज), स्वेता (अपराजता, सफ़ेद कोयल) कुठेरक (एक तुलसी का भेड़, छोटी तुलसी या मरवा) शिरिस (सिरस), लशुन (लहसुन), दोनों हरिद्रा (हल्दी एवं आमी हल्दी) दोनों लवण (सेंधा और काला) ज्योतिष्मती (मॉल कांगनी) नागर (सोंठ) इन पदार्थों का नस्य शिरोविरेचन के लिए प्रयोग करना चाहिए, जब सर में भारी हो, दर्द हो, पीनस रोग हो, आधा सीसी हो, नाक में या मस्तिष्क में क्रीमी रोग हो, अपस्मार (हिस्टीरिया)  नाक से सुंगंध आना रूक गया हो या मूर्छा फिट आती हो. तब शिरोविरेचन के लिए उपर्युक्त का प्रयोग करना चाहिए.   
जारी है.................


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शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता-१६-औषध एवं वैद्य कैसा हो?

गतांक से आगे.................. 
यथा विषं यथा शस्त्रं यथाग्निरशनिर्यथा.
तथौषधमविज्ञातं विज्ञातममृतम यथा (१२४)
अमृत और विष औषध- बिना जागा हुआ औषध, वैसा ही है, जैसे विष,या जैसे आग, या जैसे बिजली है. वे बिना ज्ञान के ही मृत्यु का कारण होते हैं. और विशेष रूप से जान हुआ औषध अमृत जैसे होता है, जिस औषध के विषय में नाम, रूप, और गुणों का ज्ञान नहीं है, जानकारी नहीं है, या जान कर भी  दुरूपयोग होता है तो वह अनर्थकारी हो जाता है. उत्तम रीती से प्रयोग करने पर तो तीक्ष्ण विष भी उत्तम औषधि हो जाता है. औषध का भली भांति प्रयोग ना करें तो वह तीक्ष्ण विष के सामान प्राण घातक हो जाता है. इस लिए बुद्धि मान रोगी जो जीवन और आरोग्य चाहता है. वह प्रयोग-ज्ञान से शून्य वैद्य की दी हुयी कुछ भी औषध ना लेवे. 
इन्द्र का वज्र सर पर गिरे तो जीवन बचा रह सकता है. परन्तु अज्ञानी वैद्य दिया औषध प्राण हरण कर लेता है. जो वैद्य अपने को बहुत बुद्धिमान मानकर  गर्व से औषध को बिना जाने  ही दुखी: सोते हुए, श्रद्धावान , विश्वासी रोगी को औषध दे देता है, ऐसे धर्महीन, पापी, दुरमति, मृत्यु के अवतार वैद्य से तो बात करने में भी मनुष्य नरक में गिर जाता है, भयंकर जहरीले सांप का विषपान करना अच्छा है, या आग में तपे लोहे की लाल -लाल गोलियां गटक जाना अच्छा है, परन्तु  विज्ञ विद्वान् वैद्यों का चोला पहनकर शरण में आये रोग पीड़ित व्यक्ति से अन्न, पान, या धन ग्रहण करना  अच्छा नहीं है.
वैद्य के कर्त्तव्य- इसलिए जो बुद्धिमान अपने उत्तम गुणों के आधार पर वैद्य होना चाहता है. वह ऐसा उत्तम यत्न करे कि लोगों को प्राण देने वाला सिद्ध हस्त वैद्य बने. वही औषध उत्तम है जो रोगी को रोग रहित करने में सफल होता है. और वही वैद्यों में उत्तम वैद्य है जो रोगी को रोगों से मुक्त करने में समर्थ हो. चिकित्सा कर्मो की सफलता ही वैद्य के उत्तम प्रयोग को बतलाती है., और सफलता ही उत्तम वैद्य को सर्वगुणों से संपन्न बतलाती है.
जारी है.........................
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शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता-१5,सर्वोत्तम वैद्य

गतांक से आगे...........
औश्धिर्नामरुपाभ्याम जानते ह्यजपा वने
अविपाश्चैव गोपश्च ये चान्ये वनवासिन: (१२०)
औषधियों के नाम और रूप तो वन में भेड़, बकरी गौवें चराने वाले गडरिये, और ग्वाले और अन्य जंगल में विचरण करने वाले जंगली आदमी भी जाना करते हैं. केवल नाम जान लेने और रूप रंग से औषधि पहचान लेने मात्र से कोई भी औषधियों के श्रेष्ठ प्रयोग का ज्ञाता नहीं हो जाता, जो व्यक्ति इन औषधियों का प्रयोग जाने, और इनका रूप पहचाने , वह "तत्व वेत्ता" कहा जाता है. इस पर भी जो भिगक (वैद्य) औषधियों को सब प्रकार से जाने उस वैद्य का क्या कहना? देश, काल के अनुसार  पुरुष अर्थात भिन्न- भिन्न रोगी को देख कर तदनुसार उनका उपयोग करना जाने उसको "भिष्क्तम" अर्थात सर्वोत्तम वैद्य जानना चाहिए. 

जारी है...........


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गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता-१४, शोधनीय वृक्ष

गतांक से आगे ........................
अथापरे त्रयो वृक्षा: पृथग्ये फलमुलिभी:
स्नुहयकार्शमंत कस्तेशामिदं कर्म पृथक पृथक (११४)
शोधनीय वृक्ष - फल और मूल वाले पूर्वोक्त वृक्षों से भिन्न ये तीन वृक्ष और हैं १ स्नुही(थोर) २ अर्क (आकडा) ३ अश्मंतक (कोविदार, पाषाण भेद, पत्थर चट्टा) इनके कार्य भेद पृथक हैं. अश्मंतक वामन में, थोर का दूध विरेचन (दस्त) करने के काम में और अर्क का दूध वमन एवं विरेचन दोनों कामों में लिया जाता है. इसके अत्रिरिक्त तीन  वृक्ष और कहे जाते हैं. जिनकी छाल हितकारी है.
१ पूतीक(कंटकी करंग, लता करंज) २ कृष्णा गंध(शोमंजं, सहजना-मुनगा) और तिल्वक (शावर लोथ या पठानी लोथ). इसमें इसमें से पूतीक, पठानी लोथ का उपयोंग विरेचन में करना चाहिए. और कृष्णा गंध की त्वचा परिसर्प (एक्जीमा, चम्बल, पामा) सुजन, और अर्श (बवासीर) पर कहा जाता है. और इसका प्रयोग दाद, गांठ फूलना, फोड़ा फूलने में, कुष्ठ और एलर्जी में, और गर्दन की फूलती गांठों पर भी किया जाता है.विद्वान् लोगों को  इन ६ वृक्षों का भली भांति अध्ययन करना चाहिए.
जारी है.....................................
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बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता-१३,दूध के प्रकार एवं उसके गुण

गतांक से आगे...................
अत: क्षिराणी वक्ष्यन्ते कर्म चैवां गुणाश्च ये
अविक्षीरमजाक्षीरं गोक्षीरम माहिषम च यत.(११५)
दूधों के गुण - अब दूधों का वर्णन किया जायेगा.उनके कार्य उपयोग एवं गुण कहे जायेंगे.
दूध के प्रकार
  • भेड़ का दूध
  • बकरी का दूध
  • गौ का दूध
  • भैंस का दूध
  • ऊंटनी का दूध
  • हस्तिनी का दूध
  • घोडी का दूध
  • मानवी (नारी) का दूध
दूध के सामान्य गुण - दूध प्राय: मधुर, स्निग्ध(चिकना), शीत, स्तन्य(स्तनों में दूध बढ़ाने वाला), प्रीमण तृप्त करने वाला, वृहण (मांस बढ़ाने वाला) वृष्य (वीर्य वर्धक रति शक्ति बढ़ाने वाला) मेध्य, मेधा बुद्धिवर्धक, बलवर्धक, मनश्कर(मन को प्रशन्न करने वाला) जीवन शक्ति वर्धक, थकावट दूर करने वाला, रक्त पित्त का नाश करता है.विहत (चोट घाव) और चोट के कारण टूटी हड्डी को भी जोड़ने वाला है. सब प्राणियों के धातु के अनूकूल पड़ता है.दोषों को शांत करता है, मलों का शोधन करता है. प्यास को बुझाता है. मन्दाग्नि को तीव्र करता है. दुर्बलता एवं घाव लगने पर श्रेष्ठ है. पांडू रोग अम्ल पित्त शोष (सूखा), गुल्म( पेट आदि में गांठ बढ़ जाना) तथा उदर रोग, अतिसार(पतले दस्त आना), ज्वर, दाह, सोजन, इनमे दूध को ही पथ्य कहा गया है.
योनी के दोष, वीर्य के दोष, मूत्र के रोग. प्रदर के रोग, मल की गांठें (सुदे) पड़ जाने पर, वात एवं पित्त रोगियों को दूध पथ्य है. नस्य (नाक से लेने), लेप करने, स्नान करने, वमन, और आस्थापन(निरुह वस्ति लेने), विरेचन और स्नेहन लेने आदि प्राय: सब कार्यों में दूध का उपयोग किया जाता है. इनके पान करने के गुण विस्तार में आगे कहेंगे. प्राय: सभी दूध मधुर हैं. ऊंटनी का दूध कुछ नमकीन होता है, बकरी का दूध कसैला होता है, ऊंट का दूध कुछ रूखा और गरम होता है.मनस्कर अर्थात प्रभाव में ओज बढ़ाने से  मन का सामर्थ्य बढ़ जाता है. रक्त पित्त में बकरी के दूध को पॉँच गुना पानी में देने का विधान है.
जारी है............
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शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

समस्त ब्लॉग वाणी परिवार एवं ब्लोगर परिवार को दीवाली की हार्दिक बधाई-ललित शर्मा



समस्त ब्लॉग वाणी परिवार एवं ब्लोगर परिवार को दीवाली की हार्दिक बधाई-ललित शर्मा 
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खील पताशे मिठाई और धुम धड़ाके से, हिल-मिल मनाएं दीवाली का त्यौहार



  निश  दिन  खिलता रहे आपका परिवार
चंहु दिशि फ़ैले आंगन मे सदा उजियार
खील पताशे मिठाई और धुम धड़ाके से
हिल-मिल  मनाएं  दीवाली  का त्यौहार

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गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता-१२ "मुत्रों के विशेष गुण एवं उपयोग

गतांक से आगे..........
अविमूत्रं सतिक्तं स्यतिस्निग्धं पित्ताविरोधी.च.
आजं कषायमधुरं पथ्यं दोषान्नीहन्ति  च (१००)

मुत्रों के विशेष गुण- भेड़ का मूत्र तिक्त (कडुआ) रस का होता है, वह चिकना, और पित्त शामक है, बकरी का मूत्र , कसैला, मधुर, और सेवन करने में पथ्य है. गौ का मूत्र मधुर और दोषों का नाशक और छोटे-छोटे कीडों और कृमियों का नाश करता है. पान करने पर खाज के रोग  पामा या  चुम्बल,और एक्जीमा आदि का नाश करता है और वातादी से उत्त्पन्न उदर के रोगों में भी हितकारी है. भैंस का मूत्र बवासीर, शोथ, और उदर रोगों का नाशक, स्वाद में खारा, और सर अर्थात दस्त लाने वाला होता है. हाथी का मूत्र  नमकीन, कृमियों एवं कुष्ठ रोगों को नाश करता है, कब्ज अर्थात मलावरोध और मूत्रावरोध, कफ रोग (बलगम बढ़ना) और बवासीर की चिकित्सा में उपयोगी है. ऊंट का मूत्र स्वाद में तिक्त (कडुआ) और श्वास (दमा) कास (खांसी) और अर्श (बवासीर) का नाश करने वाला है. घोडों का मूत्र स्वाद में तिक्त (कडुआ) और कटु (चर्परा)  और कोढ़, व्रण (फोड़ा) और विष का नाशक है, गधे का मूत्र अपस्मार (हिस्टीरिया, मिर्गी), उन्माद,(पागलपन), गृह (दांत लगाना, बांयटे आना) इनका नाश करता है. इस प्रकार ये आठ तरह के मुत्रों का विशेष गुण  एवं उपयोग है.
राज निघंटु में- राज निघंटु में  गो मूत्र  को मतिप्रद= बुद्धि वर्धक और पवित्र लिखा है. अजामूत्र को  नाडी विषात्तिन्जित अर्थात नर्वस सिस्टम तक गए विष को नाश करने वाला बताया गया है. इसको न्युरालिया पर प्रयोग करके देखना चाहिए. भेड़ के मूत्र को प्रमेह नाशक बताया गया है. भैंस के मूत्र को अक्षिदोषकारक लिखा है. हस्ति मूत्र को वातभूतनुत कहा है. गधे के मूत्र को  भूतकम्पोंमादहर लिखा है. वृध्वाग्भट  ने बकरी के मूत्र को कर्णशूलहर लिखा है.
जारी है.......................
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बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता-११ -मूत्र एवं मूत्र गुण

गतांक से आगे....
मुख्यानि यानि ह्यष्टनि सर्वणयात्रेयशासने  .
अविमुत्रमजामुत्रम गोमूत्रं माहिर्ष तथा. (९३)

हस्तिमूत्रं  मथो दट्रस्य ह्यस्य च खरस्य च.
आठ मूत्र- आप मुझसे उन आठ सूत्रों का उपदेश ग्रहण करो जो पुनर्वसु आत्रेय के उपदिष्ट शास्त्र में मुख्य है. १. भेड़ का मूत्र, २..बकरी का मूत्र, ३.गाय का मूत्र, ४.भैंस का मूत्र, ५. हाथी का मूत्र, ६.ऊंट का मूत्र, ७.घोडे का मूत्र, ८. गधे का मूत्र. ये आठ मूत्र हैं. इसमें उत्तम गौ, बकरी, भैंस, हैं. इनमे मादा जंतुओं का मूत्र उत्तम कहलाता है. गधा,ऊंट, हाथी और घोड़ा इनमे नर का मूत्र हितकारी है.
भावप्रकाश में मानव का मूत्र भी कहा गया है, साधारणत: कहा जाये तो नर मादा किसी का भी मूत्र ले सकते हैं. पर विशेष रूप से जैसा कहा गया गया हो वैसा लेना चाहिए. चक्रपाणी के मत में मादाओं का मूत्र लघु होता है. नपुंसक का मूत्र अमंगल होने त्याज्य है.
मुत्रों के गुण- सब प्रकार के मूत्र स्वभाव से तीक्ष्ण ,उष्ण, रुक्ष, नमकीन, और कटुरस होते हैं. मूत्र उत्सादन (उचटना) अलेप्न (लेप करना) आस्थापन ( रुक्षवस्ति लेना), विरेचन (दस्त लेना), स्वेद (अफारा से पशीना लेना) इन उप्योंगों में आते हैं और अफारा, और अगद  अर्थात विषहर औषध में  और उदर  रोंगों  और अर्श (बवासीर)  गुल्म (फोड़ा), कुष्ठ (कोढ़ आदि त्वचा रोग)  किलास (श्वेत कोढ़) आदि रोगों में हितकारी हैं. इनका उपयोग उपनाह (पुल्टिस बनाने)में और परिषेक (घाव आदि धोने) में भी होता है. मूत्र स्वभाव से दीपन अर्थात अग्नि मंदता को दूर करता है. कीडों, कीटाणुओं का नाश करता है. पांडू  रोग (पीला कोढ़) से पीडित रोगों के लिए मूत्र सबसे उत्तम औषध है. मूत्र अंत: प्रयोग द्वारा कफ का नाश करता है. पित्त को कम करता है. इस प्रकार ये सामान्यत: मुत्रों के गुण संक्षेप में कहे गये हैं. विस्तार से चर्चा आगे होगी.
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मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता-१० लवण क्या हैं?

गतांक से आगे..............
आलेपनार्थे युज्यन्ते स्नेहस्वेदविधौ तथा.
अधोभागोर्ध्वभागेषु निरुहेष्वनुवासने  (९०)

अभ्यअंजने  भोजनार्थे शिरसश्च  विरेचने.
शस्त्रकर्मेणि बस्त्यर्थम अंज्नोत्सादनेशु च. (९१)

लवणों के विषय में चर्चा.
पॉँच लवण- सौन्चल (सौन्चल, काला नमक) सैन्धव (सेंधा नमक) विड लवण, औद्भिद लवण (रह) और समुद्र. जो समुद्र के जल से प्राप्त होता है.और(सम्बह्र) यह पॉँच प्रकार के नमक है.
पृकृति एवं उपयोग-ये पांचो नमक स्निग्ध (चिकने), उष्ण (गर्म) तीक्ष्ण (तीखे), और दीप्नीयातम अर्थात मन्दाग्नि को खूब चमकाने वाले हैं. इनका उपयोंग लेप करने, शरीर के उपर एवं नीची के  भागों में स्नेहन, और स्वेदन अर्थात पसीना लेने, निरुह अर्थात रुक्ष वस्ती लेने, और अनुवासन अर्थात स्निग्धा वस्ति लेने, अभ्यन्जं (मालिश) करने में, भोजन में, शिर के विरेचन अर्थात नस्य  लेने में, शस्त्र कर्म  (चीरफाड़ चिकित्सा) में, वर्ति (वत्ती बना कर गुदा आदि भागों में रखने) में अन्जन्वत आँख में लगाने, तथा उत्पादन अर्थात उबटना में , और अजीर्ण (कब्ज) आनाह (अफरा) वात (वाय का रोग), शूल (पेट दर्द) और उदर रोग में होता है. इस प्रकार लवणों का उपदेश  किया गया है.
सैन्धव (सेंधा नमक) यह सबसे उत्तम है, "सैन्धवं लवणानाम" ऐसा प्रधानतम अधिकार में कहा गया है. सौवर्चल या सौंचल सबसे अधिक रुचिकर  है. औद्भिद  औक्वारिका लवण है. इसको काच लवण भी कहते हैं. चक्रपाणी इसे "सांभर" नमक बतलाते हैं. और समुद्री नमक को "करकच" कहा है. यह समुद्र से आता है.
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सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता-९ महास्नेह

गतांक से आगे............स्नेहना जीवना वल्या वर्णोंपचयवर्धना:,स्नेहा ह्येते च विहिता वातपित्तकफापहा: (८७)चार महास्नेह- घी, तेल, वसा (चर्बी), और मज्जा ये चार प्रकार के  स्नेह अर्थात चिकने पदार्थ हैं.इनका प्रयोग पीने, मालिश करने, बस्ती (गुदा मार्ग से लेने), एवं नाक द्वारा नस्य लेने में होता है. 
इनके गुण - ये चारों शरीर में चिकनाई पैदा करते हैं. जीवन शक्ति बढाते हैं. बल और वर्ण (कांति) और शरीर को मांस वृद्धि में सहायक होते हैं, ये चारों वात, पित्त, कफ के विकारों को नष्ट करते है. शंखिनी श्वेतवुन्हा सुश्रुत में मुलेठी का मूळ उत्तम लिखा है. परन्तु विरेचन के लिए फल ही उत्तम है, नस्त: प्रच्छेदन= शिरोविरोचना, नस्य लेकर छींक लेना. महा स्नेहों में सबसे प्रथम घी (सर्पि:) का पाठ है. वह सब स्नेहों से उत्तम है. 
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महर्षि चरक एवं चरक संहिता-८ फलिनी औषधियां

गतांक से आगे...
श्वेता ज्योतिष्मती चैव योज्या शीर्ष विरेचने.
एकादशावशिष्टा या: प्रयोज्यास्ता  विरेचन:(७९)
इत्युक्ता नामकर्मभ्यम मूलिन्य:,
सोलह मुलिनियों का प्रयोग - शण पुष्पी,विम्बी, हैमवती (वचा), इनका प्रयोग मूल वमन में किया जाता है, श्वेता (सफ़ेद कोयल) और ज्योतिष्मती (मॉलकांगनी) इनका मूल शिरोविरेचन  के लिए प्रयोग करना चाहिए. शेष जो ग्यारह बची उनका मूल विरेचन के लिए प्रयोग करना चाहिए. ये नाम एवं कर्म सहित १६ मुलिनियाँ हैं.इन सबका मूल (जड़) काम में आने के कारण  इनको मूलिनी वर्ग में गिना जाता है.
फलिनी: श्रणु (८०)
शंखिन्याथ विडअन्गानि त्रपुर्ष  मदनानि च.
आनुपं स्थलज्म चैव क्लित्कम  दिविधिम स्मृतं.(८१)
फलिनी- अब फलिनी औश्दियों के विषय में चर्चा करते हैं. १.शंखिनी( यवतिक्ता या चौर्पुश्पी) २.विडंग (बायविडंग), ३.त्रशुप (खीरा, हठी) ४.मदन (मैन फल) ५.आनूप क्लीतक (जलज मूलहठी), ६.स्थलक क्लीतक (भूमि में पैदा होने वाली मूल हठी) ७.प्रक्रियां ( करन्जुवा, लता करंज, कंजा) ८.उद्किर्या (वृक्ष करंज) ९.प्रत्यक पुष्पी (अपामार्ग,औंगा, चिरचिटा, पूठा कंड) १०. अभय (हरड)११. अंत: कोटर पुष्पी (नील चुन्हा या घाव पत्ता) १२ हस्तीपर्णी ( तिक्त कर्कटी मोरट का शरद ऋतू में फलने वाला फल) १३.काम्पिल्ल  (कमीला) १४.आरग्वध( अमलताश)१५.कुटज (कूड़ा का फल ), १६.धामागर्व (पीले फुल की घोषा लता) १७ . इक्ष्वाकु (कड़वी तुम्बी) १८. जीमूत (देवलाली, बंदाल) १९. कृत्वेधन(कोशातकी, एक प्रकार की तुराई) ये १९ औषधियां फलिनी हैं.
उपयोग- धामागर्व, इक्ष्वाकु, जीमूत, कृत्वेधन, मदन, कुटज, त्रपुष, हस्तीपर्णी, इनके फलों का प्रयोग वमन तथा आस्थापन अर्थात रुक्षवस्ति में करना चाहिए और नासिका से शिरोवेच अर्थात नास्य लेने में प्रत्यकपुष्पी (अपामार्ग) का प्रयोग करना चाहिए. शेष जो जो दस रही उनका प्रयोग विरेचन (दस्त लेने) में करना चाहिए. इस प्रकार नाम एवं कर्म सहित फलिनी औषधियों के १९ फलों का उपदेश किया गया.
जारी है.........................



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रविवार, 11 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता- ७, द्रव्यों का वर्गीकरण

गतांक से आगे-
मूलिन्य: शोड़शैकोना: फलिन्यो विंशति स्मृता:.
महास्नेहश्च चत्वार: पंचैव  लवणानि  च. (७४)
द्रव्यों का वर्गीकरण- जिन वनस्पतियों के मूल प्रयोग में लाये जाते हैं,उसे मुलीनी कहते हैं, ये संख्या में १६(सोलह) हैं, जिनके फल प्रयोग में लाये जाते हैं.वे संख्या में १९ (उन्नीस) हैं. महास्नेह (उत्तम कोटि के चिकने पदार्थ) चार हैं. लवण जाती के द्रव्य ५(पॉँच ) हैं. मूत्र ८ (आठ), और दूध भी ८ (आठ) हैं. शोधन अर्थात वमन आदि द्वारा शरीर के मल शोधन करने वाले केवल ६ वृक्ष हैं. जिनका आत्रेय पुनर्वसु आदि ने उपदेश किया है. इनको जो विद्वान् रोग के अवसरों पर प्रयोग करना जानता है,वही आयुर्वेदवित् अर्थात आयुर्वेद का उत्तम ज्ञाता है.
इन वर्गों का विस्तार- १६- मुलीनी- १. हस्तीदंती (नागदंती) २.हैमवती(वचा) ३.श्यामा( श्याम या नीली जड़ की त्रिवृत) ४.त्रिवृत (निशोथ, निशोत, लाल जड़ की त्रिवृत पंजाबी में तिवि या त्रिवि) ५.अधोगुडा(वृद्धदारक विधारा) ६.सप्तला-(सप्तला,शिकाकाई) ७. श्वेतनामा (श्वेत, अपराजिता, सफेद कोयल) ८.प्रत्यक श्रेणी ( दंती, जमाल घोटा) ९. गवाक्षी (इन्द्रायण) १०. ज्योतिष्मती (मॉल कांगनी) ११.विम्बी ( जिसके विम्ब नामक लाल फल लगता है, कड़वी, कंदूरी) १२.शण पुष्पा (झंझनिया, घटारंच) १३. विषाणिका ( आवर्तकी, मरोड़फली या मेष श्रृंगी) १४. अजगंधा ( काकन्दी, अजमोद, या ढकु) १५. द्रवंत: (दंती का एक भेद , एक प्रकार का जमाल घोटा) और १६.क्षिरनी (स्वर्णक्षीरी, चोक, या दूधी, हिरवी)
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महर्षि चरक एवं चरक संहिता-६, द्रव्य क्या हैं? वर्गीकरण

गतांक से आगे............
किन्चिद्दोषप्रशमनं किन्चित्द्धातु प्रदुषणम. 
स्वस्थवृत्तौ हितं किंचित त्रिविधं द्रव्य मुच्यते (६७)
अब आगे हम द्रव्यों के विषय में चर्चा करेंगे,
त्रिविध द्रव्य- द्रव्य तीन प्रकार के होते हैं
१.कोई द्रव्य दोष को शांत करता है,२. कोई द्रव्य धातुओं को दूषित करता है,३.कोई द्रव्य स्वस्थ रहने में हितकारी है , इस प्रकार से द्रव्यों के तीन प्रकार बताये गये हैं, इन तीनो प्रकार के द्रव्यों के और तीन प्रकार हैं 
१. जंगम २.औद्भिद ३.पार्थिव 
१.जंगम वे पदार्थ हैं जो जंगम अर्थात चार प्राणियों के शरीर से उत्पन्न होते हैं, जैसे- नाना प्रकार के मधु(शहद),नाना प्रकार के प्राणियों से उत्पन्न हुए दूध, पित्त, चर्बी, मज्जा, रुधिर, मांस, मल, मूत्र, चमड़ा, वीर्य, हड्डी, स्नायु, अनेक प्रकार के सींग, खुर, नख, केश, रोम, और रोचानाएं, ये द्रव्य जंगम प्राणियों से प्राप्त करके उपयोग में लाये जाते हैं,
२.पार्थिव या भौम- ये पदार्थ पृथ्वी या भूमि से प्राप्त होते हैं, जैसे- सुवर्ण,  मल सहित पांचों प्रकार के लौह धातु, सिकता (बालू) सुधा(चुना) मनशिला(मैनसिल) आल (हरिताल) अनेक प्रकार की मणियाँ (रत्नं) लवण(नमक) गेरू, अंजन( सुरमा-एन्टिमनी) इनको भौम या पार्थिव औषध कहा गया है,
३.औद्भिद- जो द्रव्य उद्भिद अर्थात पृथ्वी को भेद कर उत्पन्न होने वाले वृक्षों से  प्राप्त होता है उसे औद्भिद कहते हैं, ये चार प्रकार का है,१. वनस्पति,२.वीरुध,३.वानास्पत्स्य, ४.औषधि 
वनस्पति के वे वृक्ष हैं जिनमे फल लगें पुष्प ना आवें, जैसे-पीपल, अंजीर, गुलर,आदि , जिनमे फुल आवें और फल भी लगे वे वानास्पत्स्य हैं-जैसे आम, अमलताश आदि, औषधि वे हैं जो फल पकने के बाद सूख कर नष्ट हो जाती हैं, वीरुध वे हैं जिनमे प्रतान अर्थात फैलने से सूत या तंतु निकलते हों, जैसे-- लताएँ, वेलें, तरबूज आदि,
इन चारों प्रकार के औद्भिदों से जो द्रव्य प्राप्त होते हैं वे हैं- मूल,(जड़) त्वग( छाल), सार(बीच की कड़ी लकडी), निर्यास(गोंद), नाल( डंडी आदि) स्वरस(इनको निचोड़ कर निकला गया द्रव्य) पल्लव(नये कोमल पत्ते), क्षार(खार), क्षीर दूध,फल,पुष्प (फुल), भस्म (राख), इनसे अनेक प्रकार के तेल, कांटे, पत्ते, शुंग (पत्तों की अंकुआ), कंद और प्ररोह (नए-नए अंकुर या जटा) ये सब औद्भिद गण हैं,
दोषों के शामक जैसे-अमला, कंटकारी, आदि, दूषक जैसे-यवक  मंदक आदि विष, स्व्स्थ्क वृत्ति कर जैसे वृष्य रसायन आदि, यद्यपि दोष शामक पदार्थ भी कभी दूषक हो जाते हैं, जैसे अधिक आमला के सेवन से अग्नि मंद हो जाती है, धातु दूषक विष भी दोष हर होते हैं,-विषम उदरहरम. इनका भी मिथ्या योग,अयोग,अतियोग, ही निंदनीय है, प्राय: जो पदार्थ जैसा है, वैसा मानना चाहिए, मणि के रहते अग्नि भी दाहक नहीं होता, इससे उसका दाहक गुण नष्ट नहीं होता इसी से इन्द्रियों को दोष्नाशक आदि प्रायिक देखना चाहिए. जंगमों में रोचना (गोरोचना) आदि पदार्थ विशेष रूप से  उत्त्पन्न होते हैं, पर्थिवों में पॉँच धातु ताम्र(ताम्बा), रजत (चाँदी), त्रपु (टीन), शीश (सीसा) कृष्णालोह (लोहा), हैं,. "मल" शब्द से शिलाजतु  (शिलाजीत), और लोहादि के जंग लिए जाते हैं. सुश्रुत ने ६ प्रकार के  मल शिलाजतु  कहे हैं, रसायन में चार कहे गए हैं.
जारी है........................ महर्षि  एवं चरक संहिता-६, द्रव्य क्या हैं?
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शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता-५ वात-पित्त-कफ के गुण

गतांक से आगे-
रुक्ष: शीतो लघु: सुक्ष्मश्चलोSथ विषद: स्वर:
विपरीतगुनैद्रव्यर्मरुत: स्न्प्रशाम्यती  (५९)
साधनं नत्व्साध्यानाम व्याधिनामुपदिश्यते
भुयाश्चातो यथाद्रव्यम गुणकर्म प्रवक्ष्यते (६३)

वात के गुण -वायु रुक्ष(रुखा) शीत, लघु, सूक्ष्म, चल, विषद और खर होता है, वह इससे विपरीत गुण वाले द्रव्यों से शांत हो जाता है.
पित्त के गुण- पित्त स्नेह सहित(चिकना), गरम, तीखा(कडुआ) द्रवरूप, खट्टा,  सर (गतिशील, दस्तावर, फैलने वाला) और कटु होता है, वह इससे विपरीत गुण वाले द्रव्यों से शांत होता है,
कफ के गुण- कफ गुरु(भारी) शीत, मृदु , स्निग्ध(चिकना) मधुर (मिठास लिए) स्थिर, पिच्छल(फिसलना) होता है, कफ के गुण विपरीत गुणों वाले द्रव्यों से शांत होते है,
देश, मात्रा, काल के अनुसार विपरीत गुणों वाली औषधियों से साध्य माने गये विकार(रोग) ही दूर होते हैं, असाध्य व्याधियों को अच्छा करने का उपाय इस शास्त्र में उपदेश नही किया गया  है. अर्थात एक सीमा से परे रोग असाध्य हो जाता है तो उसकी चिकित्सा नही हो सकती.
रसनार्थो रसस्तस्य: द्र्व्य्माप: क्षितिस्तथा.
निवृत्तौ च, विशेषे च प्रत्यया: खाद्य्स्त्राया: (६४)
स्वदुर्म्लोSथ लवण: कटुकस्तिक्त एव च.
कशायाश्चेती षटकोSयं  रसानां संग्रह: स्मृत:(६५)
रस - रस रसना- अर्थात जिव्ह्या का विषय है, रस गुण का आश्रय आप:(जल) और भूमि(पृथ्वी) दोनों हैं, और जल और पृथ्वी ही रस की प्रतीति के कारण हैं, शेष अग्नि, वायु और आकाश तीनों विशेष रस प्रतीति के निमित्त कारण बन जाते हैं,
स्वादु-(मधुर),अम्ल, (खट्टा) लवण(नमकीन) कटुक(मिर्चिकासा चरचरा) तिक्त(नीम के सामान कडुआ) और कषाय ( कसैला बहेडे  के सामान) ये छ: रस संक्षेप से कहे गये है,
मदुर,अम्ल, और लवण ये वायु (वात) को शांत करते हैं, कषाय और तिक्त ये पित्त को शांत करते  हैं, कषाय, कटु और तिक्त ये कफ का शमन करते हैं.
स्वाद लेने वाली इन्द्री रसना है, उसका ग्राह्य विषय रस है, भद्र काप्पीय (सु.अ.२६) में सौम्य: ख्ल्वाप:. कहा है, सुश्रुत में - आप्यो: रस. जल के रस से ही पृथ्वी भी रसवती कहलाती है, पृथ्वी, जल्दी भूत परस्पर मिले रहते हैं, विष्टम ह्रापरम् परेण. इस कारण से सोम गुण अधिक होने से मधुर रस, पृथिवी और अग्नि की अधिकता से अम्ल, इत्यादि रस होते हैं, इन्ही के कम या जायदा होने को ही मधुर एवं मधुरतम  कहा है, जल स्वयम अव्यक्त रस है, पृथ्वी के सम्बन्ध से रस की अभिव्यक्ति होती है, यास्क का कथन है- सर्वेरसा: पानीयमनु  प्राप्ता:..
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बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता (४)-त्रिदोष क्या हैं?


गतांक से आगे--
निर्विकार: परस्वात्मा सत्त्वभूतगुणेइन्द्रियों,
चैतन्ये कारणम नित्यो द्रष्टा पश्यति हि क्रिया: (५६)
अर्थात मन एवं शरीर दोनों से परे सूक्ष्म आत्मा स्वत: निर्विकार है,उसमे रोग आदि नहीं होते, वह आत्मा ही सत्व अर्थात मन,भूतों के गुण,शब्द गंध, रूप रस, स्पर्श और इनके ग्रहण करने वाली इन्द्रियों के साथ रहकर शरीर की चेतना का मूल कारण है,वह आत्मा नित्य है,वह शरीर में होने वाली सभी क्रियाओं का दृष्टा अर्थात साक्षी है,वह उन सबको देखता है,
वायु: पित्तं कफ्श्चोक्त: शरीरो दोषसंग्रह:.
मानस: पुन्रुद्धिष्टो रजश्च तम एव च . (५७)
प्रशाम्यत्योश्धि: पूर्वो दैव्युक्तिव्यपश्रयै:
मानसों ज्ञानविज्ञानधैर्यस्मृतिसमाधीभि:(५८)
त्रिदोष - वायु (वात),पित्त और कफ, ये तीन शरीर गत दोष हैं,रज और तम ये मन के दोष हैं, शरीर गत दोष ,दैव, और युक्ति का सहारा लेकर सेवन किये गए औषधियों से शांत  हो जाता है,और मानस का दोष ज्ञान-विज्ञान,धैर्य समृति और समाधि  के अभ्यास से शांत होता है, दैव अर्थात धर्माधर्म,अदृष्ट,का आश्रय लेकर बलि मंत्र,मंगल अदि से रोग शांत किये जाते हैं, युक्ति योजना, हितकारी योग, देकर शरीर के मलों को शोधना आदि,ज्ञान-अध्यात्मज्ञान,विज्ञानशास्त्र-ज्ञान,धैर्य चित्त की स्थिरता, स्मृति पुनार्नुभावों  का स्मरण, समाधी विषयों से चित्त को हटाकर परमार्थ में लगाना,
 वात-पित्त-कफ-इन तीनो को धातु भी कहा गया है, रोग के ये तीन प्रधान कारण होने से इनको दोष भी कहा गया है, आगे इनकी चर्चा विस्तार के साथ होगी अभी प्रारम्भिक जानकारियों पर ही चल रहे हैं,८० वातज विकार-४०पित्तविकार-२० कफ विकार हैं, इनका सम रहना ही आरोग्य है,शोणित या रक्त को दोष कहा है,तो भी रक्तादी के दूषण में भी वायु आदि का संसर्ग ही कारण होने से यहाँ दोष संग्रह में रक्त का नाम नही लिया, इसी प्रकार मान्सादि धातुओं में भी होता है.
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सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता-3

गतांक से आगे....चरक एवं चरक संहिता..सर्वदा सर्वभावानाम सामान्यं वृद्धि कारणं, ह्रासहेतुर्विशेशाश्च प्रविर्त्ति रुभयस्य तू(४४) भावार्थ-सदा सब पदार्थों का द्रव्य,गुण और करम सामान्य (सामान होना) ही वृद्धि  का कारण है, और विशेष अर्थात भिन्न या विपरीत होना ही ह्रास अर्थात कम हो जाने का कारण है, वृद्धि और ह्रास (बढ़ने और घटने)  दोनों में वस्तुत: प्रवृत्ति अर्थात चेष्टा  या उपयोग ही कारण है, अर्थात-- मांसादी को बढ़ाने के लिए द्रव्य ही उपयोगी है,जिनमे मांस के घटक तत्व सामान रूप से हैं,उनके सेवन से मांस की वृद्धि और लघु धातुओं की हानि होती है.गुरु पदार्थों के सेवन से गुरु धातुओं में वृद्धि और लघु पदार्थों की हानि होती है-तेल,घी,मधु ये क्रम से वात-पित्त श्लेष्म को शांत करते हैं, उसी प्रकार वात-पित्त और कफ इनसे भिन्न गुण के पदार्थों के सेवन से शांत हो जायेंगे.इस प्रकार बढ़ी हुयी धातुओं के प्रकोप को शांत करने के लिए उससे विपरीत गुण के द्रव्य का उपयोग करना चाहिए, और सामान गुण वाले द्रव्यों के सेवन से न्यून हुई धातुओं को बढा लेना चाहिए, यही चिकित्सा का मूल तत्त्व है,
काल बुद्धिइन्द्रियार्थानाम योगो मिथ्या न चाति च.
द्वयाश्रयाणाम व्याधिनाम त्रिविधो हेतु संग्रह: .(५४)
 काल,बुद्धि और इन्द्रियार्थ अर्थात इन्द्रियों के ग्राह्य विषय रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द इन तीनों का मिथ्या योग,अयोग और अतियोग ये तीन ही कारण  मन और शरीर में आश्रित रोगों के कारण हैं. इस प्रकार ये ९ कारण हैं,-१.काल का मिथ्या योग जैसे हेमंत आदिकाल में शीत ना पड़कर गरमी या वर्षा होने से बीमारियाँ उत्त्पन्न होती हैं,२. काल का अयोग - जैसे हेमंत में शीत सर्वथा ना हो, ३.काल का अतियोग-जैसे ग्रीष्म में अधिक गर्मी, वर्षा में वर्षा अधिक हो,इसी प्रकार मिथ्या योग-अयोग-अतियोग बुद्धि और इन्द्रियों के सेवन में भी जानने चाहिए.जो विद्वान् है उसे पढ़ने ना मिले तो रोगी हो जायेगा-यह बुद्धि अयोग है, अधिक पढ़े बीमार हो जाये-ये अतियोग है, पढने की इच्छा कुछ और हो और पढाया कुछ और जाये यह मिथ्या योग है, इन्द्रियार्थों में अधिक काल तक देखने से आँखे दुखती हैं, यह अति योग है, अम्ल ना खाने से आँखों का रोग होता है ये अयोग है,वहां सेंक देना चाहिए वहां शीतोपचार करना चाहिए ये मिथ्या योग है,
शरीरं सत्व्संग्यम च व्याधिनामाश्रयो मत: .
तथा सुखानाम, योगस्तु सुखानं कारणं सम: (५५)
व्याधियों (रोगों) के दो ही आश्रय हैं, एक शरीर और दूसरा सत्व अर्थात चित्त या मन. और सुखों के(आरोग्य)का आश्रय भी मन और शरीर दोनों हैं,  पूर्वोक्त काल,बुद्धि और इन्द्रियों के ग्राह्य विषय  इनका समायोग अर्थात उचित मात्रा में होना ही सुखों का कारण है,.
सुखों का अर्थ आरोग्य और दुखों का अर्थ व्याधि है, शरीर के रोग जैसे ज्वर, कास,कुष्ठ आदि, मानस रोग जैसे योषउन्माद=हिस्टीरिया, पागलपन (उन्माद )आदि. शरीर रोगों के प्रभाव से मन में भी विकार पैदा होते है, चिकित्सक को चाहिए की रोग का मूल कारण केवल शरीर में है या केवल चित्त में, या दोनों में है, अनेक रोग भी एक दुसरे के उत्पादक होकर कारण परम्परा उत्त्पन्न करते है, इस प्रकार रोग का प्रारंभ से अंत तक जानना आवश्यक है. 
जारी है............... 

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महर्षि चरक एवं चरक सहिंता-2

संहिताकार कहते है,
तस्मै प्रोवाच भगवानायुर्वेदम शतक्रतु:
पदैर्ल्पैर्मतिम बुद्ध्वा विपुलां परमर्शये.२३
हेतु लिंगौधज्ञानम स्वस्थातुरपरायणं,
त्रिसूत्रं शाश्वतं पुण्यं बुवुधे यं पितामह: 24 


महर्षि चरक एवं चरक सहिंता पर आगे बढ़ते है,आयुर्वेद का ज्ञान इंन्द्र ने ऋषि भारद्वाज को विशाल मति जान स्वल्प शब्दों में ही उपदेश किया था जिसमे रोग होने के कारण,रोगों के लक्षण एवं उनको शांत कारने वाली औषधियों का ज्ञान है,जिसका आश्रय स्वस्थ एवं रोगी दोनों लेते हैं,जिसका ज्ञान पिता मह ब्रम्हा को सबसे पहले प्राप्त हुआ था, रोग के कारक, लक्षण (डायग्नोसिस)  और औषध (मेडीसिन) यही तीन सूत्र,तीन स्कंध,तीन शाखाएं हैं, इसके प्रथम उपदेष्टा पितामह ब्रम्हा हैं, उन्ही से आयुर्वेद परमपरा से इन्द्र को प्राप्त हुआ था.

आयुर्वेद के लक्षण- हिताहितं सुखं दू:ख मायुस्तस्य हिताहितम.
                            मानम च तंच यत्रोक्त्मयुर्वेद: स उच्यते.   ४१
अर्थात-हित और अहित, सुख और दुःख ,जीना,आयु के लिए हितकर और अहितकर आयु का मन (परिमाण) यह सब जिस शास्त्र में उपदेश किया गया है,उसे आयुर्वेद  कहा जाता है. शरीर,इन्द्रिय,सत्व (मन) और आत्मा का संयोग अर्थात एक साथ व्यवस्थित रहना "आयु" कहलाता है, धारि, जीवित, नित्यग अनुबंध "आयु" के ही अनेक पर्याय बताये गये है, जिनसे आयु का बोध कराया जाता है, जो शरीर को सड़ने ना देकर स्थिर रखता है, उसे "धारि" कहा जाता है,ये प्राणियों को जीवित रखता है, प्राण धारण कराता है,इससे आयु को "जीवित" कहते है, शरीर क्षणिक होने पर उसे नित्य स्थिरवत प्राप्त होता है, इससे वह आयु 'नित्यग"है, उतरोत्तर शरीर की स्थिति परम्परा को बनाये रखने से "अनुबंध" कहलाता है, उस आयु का पुण्यतं,अति पवित्र  वेद अर्थात ज्ञान सब ज्ञानमय वेद जानने वालों का अभिमत है,वे सब उसका आदर करते हैं, आयुर्वेद का उपदेश भूलोक(मनुष्यों)देवलोक दोनों के हितार्थ उपदेश किया जावेगा 
जारी है................
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रविवार, 4 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता-1

चरक और चरक संहिता ये नाम वर्षों से सुनता आया था कई वर्षों पूर्व एक बार वैद्य विशारद एवं आयर्वेदरत्न की उपाधि हेतु पढने का अवसर मिला तो उसमे भी  ऋषि चरक का उल्लेख एवं सूत्र मिलते है,(मै चिकित्सा कार्य नहीं करता लेकिन अध्यन की प्यास आज भी निरंतर रहती है),जो बहुत ही उपयोगी है,आज हमारी आयुर्वेद चिकित्सा जो प्राचीन मुख्य चिकित्सा के रूप में मानी-जानी जाती  है वो एक वैकल्पिक चिकित्सा के नए सरकारी नामकरण से जूझ रही है, एलोपैथिक चिकित्सा ही मुख्य चिकित्सा मानी जाती है,कई वर्षों से आयुर्वेद चिकित्सा सम्बन्धी ग्रंथो का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ है,ये हमारी प्राचीन विद्या है जिसे बचाना बहुत ही आवश्यक है,मुझे ऋषि चरक का एक ग्रन्थ मिला जिससे प्राचीन गुरुकुलों में आयुर्वेद चिकित्सा के विद्यार्थियों को अध्यापन करया जाता था, उसमे से कुछ चरक कि चिकित्सा से सम्बंधित अंश आपके पाठन हेतु प्रसतुत कर रहा हूँ,जिसमे बीमारियाँ उनका लक्षण और उनका इलाज रसायन शास्त्री चरक ऋषि के द्वारा जो अपने शिष्यों को बताया गया वो आपके लिए प्रस्तुत है आप लाभ अवश्य उठाएं-चरक संहिता का दूसरा नाम अग्निवेश संहिता भी है, ये आयुर्वेद कि गुरु परंपरा है, जिस ग्रन्थ से मैं ये उद्धरण दे रहा हूँ उसके डा.विनय वशिस्ठ एवं पंडित जयदेव शर्मा विद्यालंकार मीमांसातीर्थ हैं,ये सम्वत २०११ में प्रकाशित हुआ था, जिसके प्रकाशक हैं आर्य साहित्य मंडल अजमेर,और मुद्रक हैं दी फाईन आर्ट प्रिंटिंग प्रेस अजमेर,चरक की चिकित्सा से सम्बंधित अंश आपके पाठन हेतु प्रसतुत कर रहा हूँ आशा है की आपको पसंद आयेंगे, इसका प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र से आरम्भ कर रहा हूँ,

अथातो दीर्घजिवितीयमध्याय्म व्याख्या स्याम:,(१) 
इति: स्माह भगवानत्रेय: (२)

अर्थात अब इससे आगे  "दीर्घजिवितीय" अध्याय का उपदेश करंगे,इसी प्रकार भगवान आत्रेय ने उपदेश किया था.
१.चरक संहिता का दूसरा नाम अग्निवेश संहिता भी है,१-२ दोनों सूत्र अग्निवेश ने कहे हैं, भगवान पुनर्वसु आत्रेय ने अग्निवेश ,भेल ,जातुकर्न्य,पराशर, हारित, और क्षारपाणी को को उपदेश किया था.इन्होने अपनी -अपनी पृथक संहिताएँ रची, इस अध्याय का नाम"दीर्घजिवितीय" अध्याय है
२.अथ पद मंगलार्थ भी है,पूर्व शास्त्रकारों ने शास्त्र के आदि में प्रयोग किया है,जैसे-अथ योगानुशासनम्.योग शास्त्र . अथ शब्द का अर्थ शिष्य कि जिज्ञासा के अनंतर भी है,
३.दक्ष प्रजापति ने ब्रम्हा से उपदेश के अनुसार ही आयुर्वेद का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया,उस से दोनों अश्विनी कुमारों ने,अश्विनियों से केवल भगवान इन्द्र ने ही आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया था,इसी करना ऋषियों के कथन से प्रेरित होकर ऋषि भारद्वाज आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त करने शिष्य रूप में इन्द्र के पास गये थे,
४.जब शरीर धारियों के तप,उपवास, अध्ययन,और ब्रम्हचर्य आदि व्रतों और आयु अर्थात सुखपूर्वक जीवन में विघ्न करने वाले रोग प्रकट हुए, तब प्राणियों पर दया को प्रकट करके पुण्य कर्मो को करने वाले बड़े -बड़े ऋषि  लोग हिमालय के पास शुभ सुन्दर स्थान में गये,(इस शास्त्र का प्रयोजन धातुसाम्य है,रोग का दूर होना और स्वस्थ का स्वस्थ बना रहना धातु साम्य है,)जो ऋषि हिमालय की वादियों में गए उनके नाम इस प्रकार हैं, अंगिरा, जमदग्नि, वसिष्ठ , कश्यप , भृगु, आत्रेय, गौतम, सांख्य, पुलत्स्य, नारद, असित, अगस्त्य, वामदेव, मार्कण्डेय, आश्वलायन, पारीक्षी, भिक्षु आत्रेय, भारद्वाज, कपिंजल, विश्वामित्र, आस्वराथ्य, भार्गव च्वयन अभिजित, गार्ग्य, शाण्डिल्य, कौन्दिन्य, वार्क्षी, देवल, गालव, संक्रित्य, वैजवापी, कुशिक, बादरायण, बडिश, शरलोमा, काप्य, कात्यायन, कंकायण, कैकशेय, धौम्य, मारीचि, काश्यप,शर्कराक्ष, हिरण्याक्ष, लौगाक्षी, पैन्गी, शौनक, शाकुनेय,  मैत्रेय, मैम्तायानी, वैखानसगण, और वालखिल्यगण एवं इस कोटि के अन्य भी बहुत से महर्षिगण जो ब्रम्हा अर्थात वेद ज्ञान के समुद्र, यम् और नियम और तप के सागर थे जो आहुति पाने वाले प्रदीप्त आग के समान तेजस्वी थे, वहां सुख से बैठ कर  इस प्रकार पुण्य कथा-वार्ता (आयुर्वेद)करने लगे, 

कल आयुर्वेद के के लक्षणों के विषय में पाठ है, आज मात्र ऋषियों के विषय में चर्चा हुयी है,  
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गुरुवार, 24 सितंबर 2009

फूलों से होलो तुम जीवन में सुंगध भर लो


फूलों  से  होलो  तुम  जीवन   में  सुंगध   भर  लो
महकाओ तन-मन सारा भावों को विमल कर लो

वो मालिक सबका हैं ,जिस माली का हैं ये चमन
वो  रहता  सबमे  हैं  तुम ,कर लो उसी का मनन
हो जाये सुवासित जीवन ऐसा तो जातां कर लो
फूलों से होलो तुम............................................

शुभ कर्मों की पौध लगाओ जीवन के उपवन में
देखो प्रभु को सबमे वो रहता हैं कण-कण में
बन जाओ प्रभु के प्यारे ऐसा तो करम कर लो
फूलों से होलो तुम...........................................

मै कोन?कहाँ से आया ? कर लो इसका चिंतन
जग में रह कर के ,उस दाता से लगा लो लगन
रह   कर  के  कीचड़  में  खुद को कमल कर लो
फूलों से होलो तुम..........................................

वो   दाता   सबका  हैं,  दुरजन   हो   या   सूजन
वो  पिता   सबका  हैं,  धनवान   हो  या निरधन
ललित उसमे लगा करके जीवन को सफल कर लो
फूलों से होलो तुम ............................................

ललित शर्मा
ललित वाणी से गीत कविता
(फोटो गूगल से साभार)
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