सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

महर्षि चरक एवं चरक संहिता-3

गतांक से आगे....चरक एवं चरक संहिता..सर्वदा सर्वभावानाम सामान्यं वृद्धि कारणं, ह्रासहेतुर्विशेशाश्च प्रविर्त्ति रुभयस्य तू(४४) भावार्थ-सदा सब पदार्थों का द्रव्य,गुण और करम सामान्य (सामान होना) ही वृद्धि  का कारण है, और विशेष अर्थात भिन्न या विपरीत होना ही ह्रास अर्थात कम हो जाने का कारण है, वृद्धि और ह्रास (बढ़ने और घटने)  दोनों में वस्तुत: प्रवृत्ति अर्थात चेष्टा  या उपयोग ही कारण है, अर्थात-- मांसादी को बढ़ाने के लिए द्रव्य ही उपयोगी है,जिनमे मांस के घटक तत्व सामान रूप से हैं,उनके सेवन से मांस की वृद्धि और लघु धातुओं की हानि होती है.गुरु पदार्थों के सेवन से गुरु धातुओं में वृद्धि और लघु पदार्थों की हानि होती है-तेल,घी,मधु ये क्रम से वात-पित्त श्लेष्म को शांत करते हैं, उसी प्रकार वात-पित्त और कफ इनसे भिन्न गुण के पदार्थों के सेवन से शांत हो जायेंगे.इस प्रकार बढ़ी हुयी धातुओं के प्रकोप को शांत करने के लिए उससे विपरीत गुण के द्रव्य का उपयोग करना चाहिए, और सामान गुण वाले द्रव्यों के सेवन से न्यून हुई धातुओं को बढा लेना चाहिए, यही चिकित्सा का मूल तत्त्व है,
काल बुद्धिइन्द्रियार्थानाम योगो मिथ्या न चाति च.
द्वयाश्रयाणाम व्याधिनाम त्रिविधो हेतु संग्रह: .(५४)
 काल,बुद्धि और इन्द्रियार्थ अर्थात इन्द्रियों के ग्राह्य विषय रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द इन तीनों का मिथ्या योग,अयोग और अतियोग ये तीन ही कारण  मन और शरीर में आश्रित रोगों के कारण हैं. इस प्रकार ये ९ कारण हैं,-१.काल का मिथ्या योग जैसे हेमंत आदिकाल में शीत ना पड़कर गरमी या वर्षा होने से बीमारियाँ उत्त्पन्न होती हैं,२. काल का अयोग - जैसे हेमंत में शीत सर्वथा ना हो, ३.काल का अतियोग-जैसे ग्रीष्म में अधिक गर्मी, वर्षा में वर्षा अधिक हो,इसी प्रकार मिथ्या योग-अयोग-अतियोग बुद्धि और इन्द्रियों के सेवन में भी जानने चाहिए.जो विद्वान् है उसे पढ़ने ना मिले तो रोगी हो जायेगा-यह बुद्धि अयोग है, अधिक पढ़े बीमार हो जाये-ये अतियोग है, पढने की इच्छा कुछ और हो और पढाया कुछ और जाये यह मिथ्या योग है, इन्द्रियार्थों में अधिक काल तक देखने से आँखे दुखती हैं, यह अति योग है, अम्ल ना खाने से आँखों का रोग होता है ये अयोग है,वहां सेंक देना चाहिए वहां शीतोपचार करना चाहिए ये मिथ्या योग है,
शरीरं सत्व्संग्यम च व्याधिनामाश्रयो मत: .
तथा सुखानाम, योगस्तु सुखानं कारणं सम: (५५)
व्याधियों (रोगों) के दो ही आश्रय हैं, एक शरीर और दूसरा सत्व अर्थात चित्त या मन. और सुखों के(आरोग्य)का आश्रय भी मन और शरीर दोनों हैं,  पूर्वोक्त काल,बुद्धि और इन्द्रियों के ग्राह्य विषय  इनका समायोग अर्थात उचित मात्रा में होना ही सुखों का कारण है,.
सुखों का अर्थ आरोग्य और दुखों का अर्थ व्याधि है, शरीर के रोग जैसे ज्वर, कास,कुष्ठ आदि, मानस रोग जैसे योषउन्माद=हिस्टीरिया, पागलपन (उन्माद )आदि. शरीर रोगों के प्रभाव से मन में भी विकार पैदा होते है, चिकित्सक को चाहिए की रोग का मूल कारण केवल शरीर में है या केवल चित्त में, या दोनों में है, अनेक रोग भी एक दुसरे के उत्पादक होकर कारण परम्परा उत्त्पन्न करते है, इस प्रकार रोग का प्रारंभ से अंत तक जानना आवश्यक है. 
जारी है............... 

1 टिप्पणियाँ:

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' on 6 अक्तूबर 2009 को 12:36 pm बजे ने कहा…

bahut badhiya post....badhai.

 

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