गतांक से आगे.............
अत ऊर्ध्वं प्रवक्षयामी यवागुर्विविधौषधा,
विविधानाम विकाराणाम तत्साध्यानाम निवृत्तये(१७)
यवागू कल्पना एवं उसके गुण- अब आगे नाना प्रकार की औषधियों से तैयार की जाने वाली उन औषधियों से अच्छा होने वाले अनेक रोगों को दूर करने के लिए यवागुओं (लाप्सी पेय) का वर्णन करेंगे.
मल शोधन के पश्चात् यवागू या पेय पदार्थ का वर्णन इस लिए होता है कि पंच कर्मों के सम्यक योग न होने से जठराग्नि मंद हो जाती है. उसको तेज करने के लिए पेयों का विधान है. पेयों से जठराग्नि स्थिर हो जाती है.
अन्ने पंचगुने साध्यं विलेपीनु चतुर्गुणे,
मंडश्च्तुर्दाशगुणे यवागू: षडगुणेsम्भसी.
अन्न के ६ गुणे जल में बनाई लप्सीय पानयोग्य पदार्थ को 'यवागू' या पेय कहते हैं. जो यवागू पिप्पली, पिप्पली मूळ (पीपला मूळ) चवी (चव, चविका), चित्रक (चिता) और नागर (सोंठ) इन औषधियों के साथ बनाकर तैयार की जाती है.यह जठराग्नि को तृप्त करती है और पेट में उठने वाले दर्द को शांत करती है.
जारी है..................
शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009
महर्षि चरक एवं चरक संहिता-22 यवागू कल्पना एवं उसके गुण
Author: ब्लॉ.ललित शर्मा
| Posted at: 9:08 am |
Filed Under:
चरक एवं चरक संहिता
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2 टिप्पणियाँ:
वाह जी वाह !
बहुत उपयोगी और सार्थक जानकारी
अभिनन्दन !
Aapke aakhari lekh par tippani dene ke bad yahan aaee aur jan liya ki yawagu hota kya hai. Dhanyawad bahut achcha kam kar rahe hain.
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