अध्याय २.
इस अध्याय का नाम "अपामार्ग तंडूलीय"है. इसके विवरण हेतु भगवान आत्रेय ने उपदेश किया हिल
अपमार्गास्य बीजानि पिपप्लीर्मरिचानि च .
विडंगान्याथ शिग्रुणि सर्व्पंस्तुम्बूरुणि च ..(३)
शिरोविरेचन द्रव्य- अपामार्ग, (औंगा, चिरचिटा, पूठकंडा), के बीज, पिप्पली (पीपल, बड़ी, छोटी), मिर्च (काली मिर्च, गोल, या सफ़ेद,) विडंग(वाय विडंग), शिग्रु (सहजने के बीज), सर्षप( सरसों के बीज), तुम्बुरु (नेपाली धनिया,तुमरू) अजाजी (जीरा), अजगंधा( अजमोद) पीलू (पीलू के बीज), एला (छोटी इलायची) हरेणुका (रेणुका, मेहँदी के बीज, सुगंध द्रव्य) पृथ्वीका (बड़ी इलायची के बीज), सुरसा (तुलसी के बीज), स्वेता (अपराजता, सफ़ेद कोयल) कुठेरक (एक तुलसी का भेड़, छोटी तुलसी या मरवा) शिरिस (सिरस), लशुन (लहसुन), दोनों हरिद्रा (हल्दी एवं आमी हल्दी) दोनों लवण (सेंधा और काला) ज्योतिष्मती (मॉल कांगनी) नागर (सोंठ) इन पदार्थों का नस्य शिरोविरेचन के लिए प्रयोग करना चाहिए, जब सर में भारी हो, दर्द हो, पीनस रोग हो, आधा सीसी हो, नाक में या मस्तिष्क में क्रीमी रोग हो, अपस्मार (हिस्टीरिया) नाक से सुंगंध आना रूक गया हो या मूर्छा फिट आती हो. तब शिरोविरेचन के लिए उपर्युक्त का प्रयोग करना चाहिए.
जारी है.................
2 टिप्पणियाँ:
चरक को यहाँ प्रस्तुत कर आप परंपरागत भारतीय चिकित्सा प्रयोगों के ज्ञान को नेट पर उपलब्ध बना रहे हैं। यह बहुत बड़ा योगदान है।
आपकी यह प्रस्तुति बहुत ही ज्ञानवर्धक है .धन्यवाद
एक टिप्पणी भेजें